नीम का पेड़

आरोग्य का खजाना है नीम (Benifit of Neem)

भारतीय वनस्पतियाँ सर्वव्याधि निवारक शक्ति से युक्त होने के कारण भारतीय समाज में समादरणीय एवं पूजनीय मानी जाती हैं। विभिन्न समादृत वृक्षों में नीम भी एक है। नीम भारतीय जन- जीवन में रचा-बसा है। यह प्रायः प्रत्येक ग्राम, नगर और गृह में पाया जाता है । शीतल छाया, वातावरण की शुद्धि एवं विविध जीवनोपयोगी पदार्थों को प्रदान करने के कारण प्रायः ग्रामीण इसे अपने घरों के आस-पास लगाते हैं। नीम विशुद्ध भारतीय वृक्ष है । यह प्रायः सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है ।
Neem
Neem ka ped

कथा आती है कि कोलाहल नामक भीषण दैत्य से घबराकर, देवता अपने सूक्ष्म रूप से विभिन्न वृक्षों में निवास करने लगे थे। भगवान् सूर्य ने तब नीम वृक्ष पर निवास किया था। तभी से भगवान् सूर्य की सर्वव्याधिनिवारक शक्ति नीम में निवास करती है। नीम का धार्मिक महत्त्व ग्रन्थों एवं पुराणों में बहुत प्रकार से वर्णित है ।

नीम एक जीवनोपयोगी वृक्ष है । मानव जीवन में यह अत्यन्त उपयोगी है। नीम के प्रत्येक भाग से उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है। नीम का वृक्ष द्वार पर लगाने का कारण है कि यह वायुको शुद्ध रखता है और कीटों, मच्छरों आदिको दूर भगाता है। इसकी गोंद, छाल एवं पत्ते भी बहुत उपयोगी होते हैं । नीम के पत्तों से लोग स्नान करते हैं और सूखे पत्ते जलाकर वातावरण को मच्छर एवं कीट रहित रखते हैं। छाल घिसकर घावों एवं फोड़े- फुंसियों में लगाते हैं। नीम का तेल अनेक ओषधियों में है प्रयुक्त होता है। नीम शीतल एवं छायादार वृक्ष है । जब सभी पेड़ गर्मियों में पत्र रहित हो जाते हैं तब भी यह हरा- भरा रहता है। प्राचीन समय से ही इसे छाया आदि के लिये मार्ग के किनारे लगाने की परम्परा है।

नीम एक बहुत उपयोगी वृक्ष है। इसकी जड़ से लेकर फूल-पत्ती और फल तक सभी अवयव औषधीय गुणों से भरे-पूरे हैं । भारत वर्ष के गरीब लोगों के लिये यह कल्पवृक्ष है। आइये, हम इसके गुणों को देखकर उनसे लाभ उठायें।

जड़ - नीमकी जड़ को पानी में उबालकर पीने से बुखार दूर होता है ।

छाल — नीमकी बाहरी छाल पानी में घिसकर

फोड़े - फुंसियों पर लगाने से वे बहुत जल्दी ठीक होते हैं । बाहरी छाल को जलाकर उसकी राख में तुलसी के पत्तों का रस मिलाकर लगाने से दाद तथा अन्य चर्म रोग ठीक हो जाते हैं। छाल का काढ़ा बनाकर प्रतिदिन उससे स्नान करने से सूखी खुजली में लाभ होता है।

छाया में सूखी छाल की राख बनाकर, कपड़ा से छान करके उसमें दो गुना पीसा हुआ सेंधा नमक मिला लें रोज इस चूर्ण से मंजन करने से पायरिया में लाभ होता है, मुँह की बदबू, मसूढ़ों तथा दाँतों का दर्द दूर होता है । छाल का काढ़ा दोनों समय पीने से पुराना ज्वर भी ठीक हो जाता है।

दातौन - प्रतिदिन नीमकी दातौन करने से मुँह की बदबू दूर होती है । दाँत और मसूढ़े मजबूत होते हैं । पायरिया, मसूढ़ों से खून आना तथा मसूढ़ों की सूजन के उपचार के लिये इसकी दातौन बहुत उपयोगी है।

पत्तियाँ - चैत्रमास में नीम की कोमल नयी कोंपलों को दस-पंद्रह दिन तक नित्य प्रातः काल चबाकर खाने से रक्त शुद्ध होता है, फोड़ा-फुंसी नहीं निकलते और मलेरिया ज्वर नहीं आता है।

दिन में सूर्य किरणों की उपस्थिति में नीम की पत्तियाँ ऑक्सीजन छोड़कर हवा शुद्ध करती हैं। इसलिये गर्मियों में नीम के पेड़ की छाया में सोने से शीतलता मिलती है तथा शरीर नीरोग रहता है ।

नीम की पत्तियों के चूर्ण में एक ग्राम अजवायन तथा गुड़ मिलाकर कुछ दिन तक निरन्तर पीने से पेट के कीड़े नष्ट हो जाते हैं। गाय, भैंस के ,बच्चों के पेट में कीड़े होने पर नीम की पत्तियों को पीसकर छाछ तथा नमक में मिलाकर चार-पाँच दिन देने से कीड़े मरकर बाहर निकल जाते हैं और पेट साफ हो जाता है ।

पत्तियाँ पानी में उबालकर घाव धोनेसे घाव ठीक होता है। उसके जीवाणु मरते हैं, दुर्गन्ध कम हो जाती है तथा सूजन नहीं रहती। पत्तियों के उबले पानी से स्नान करने से त्वचा की बीमारियाँ दूर होती हैं। नीम की पत्तियों को पीसकर फोड़े-फुंसी पर लगाने से आराम मिलता है।
नीमकी पत्तियों का रस दो चम्मच, दो चम्मच शहद में मिलाकर (प्रात:काल) लेने से पीलिया रोग में लाभ होता है। एक छोटा चम्मच नीम की पत्तियों का रस लेकर उसमें मिस्री मिलाकर पीने से पेचिश में लाभ होता है । प्रमेह में एक कप पानी में दो-तीन ग्राम पत्तियों को उबालकर काढ़ा बनाकर पीने से लाभ होता है। चेचक और खसरा के रोगियों को शीघ्र स्वस्थ करने के लिये नीम के पत्तों से हवा की जाती है।

पत्तियों के अन्य उपयोग — नीमकी पत्तियों को संचित अनाज में मिलाकर रखने से उसमें घुन, ईली तथा खपरा आदि कीड़े नहीं लगते। गर्म और सिल्क के कपड़ों, गर्म रेशमी कालीन, कम्बल, पुस्तक आदि को कसारी (कीड़ा) से बचाने के लिये इनमें नीम की पत्तियाँ रखनी चाहिये। नीम की सूखी पत्तियों के धुएँ से मच्छर भाग जाते हैं।

नीम की पत्ती की खाद पेड़-पौधों को पोषक तत्त्व प्रदान करती है तथा जमीन में उपस्थित दीमक को भी समाप्त करती है। फसल को नुकसान पहुँचाने वाले अन्य कीटों को भी यह मारती है।

फूल - नीम के फूल तथा निबौलियाँ खाने से पेट के रोग नहीं होते । फूलों को जलाकर काजल के रूपमें उपयोग में लाया जाता है ।

निबौलियाँ - निबौली नीम का फल होता है। इससे तेल निकाला जाता है। यह भी कई प्रकार के रोगाणुओं को मार डालने में सक्षम है। आग से जले घाव पर इसका तेल लगाने से घाव बहुत शीघ्र भर जाता है । इस तेल से नीमका साबुन बनाया जाता है। यह साबुन चर्मरोग, घाव तथा फोड़े-फुंसियों के लिये लाभकारी है। तेल निकालने के बाद बची हुई खली का पौधों के लिये खाद के रूपमें उपयोग किया जाता है। यह पौधों को बढ़िया खुराक प्रदान करता है। दीमक और फसल को नुकसान पहुँचाने वाले अन्य कीटों को भी मार डालता है। यह फफूँद को भी नष्ट करता है। 

नीम का मद या रस- कभी-कभी किसी पुराने नीम के वृक्ष के तने से नीम की गन्ध लिये एक तरल पदार्थ निकलता है, जिसे मद कहते हैं। रूई की बत्ती बनाकर उसे मदमें भिगोकर छायामें कई दिनों तक सुखाया जाता है। सूखने के बाद एक दीपक में सरसों का तेल लेकर, इस बत्ती को दीपक में रखकर दीपक जलाया जाता है। इसके ऊपर दूसरी मिट्टी की सिराही थोड़ी टेढ़ी - उलटी रखकर बत्ती की लौ से निकलने वाले कार्बन (धुएँ)  को इस सिराही में जमने दिया जाता है। बाद में इसे उलटी रखी सिराही से खुरचकर किसी डिब्बी में रख लिया जाता है। यह काजल नेत्रों में लगाने से नेत्रों की ज्योति सही रहती है । यह बहुत उपयोगी काजल है।

तना - नीम की लकड़ी में दीमक तथा घुन नहीं लगता, इसलिये इसके किवाड़ आदि लगवाने से दरवाजे, खिड़कियों में दीमक लगने का खतरा नहीं रहता । सींक - नाक, कान छिदवाने के तीन-चार सप्ताह बाद आभूषण पहनने से पहले नीम की सींक पहनने से जख्म जल्दी ठीक होता है और जीवाणु नहीं पड़ते।

चिकित्सा क्षेत्र में नीम का उपयोग

नीम प्रायः सभी प्रमुख रोगों की चिकित्सा में उपयोगी है। त्वचा के रोगों, ज्वर, कृमि रोग, क्षयरोग, हृदय के रोग, कामला, पाण्डु, शोथ, आमवात, गठिया, खसरा, चेचक, छूत के रोग, अम्लपित्त, बवासीर, आँख-कान-दाँत के रोग एवं विषों के नाशके लिये नीम के विभिन्न अंगों से लाभकारी एवं सस्ती ओषधियाँ तैयार की जाती हैं।

नीम के गुण- आयुर्वेदिक ग्रन्थों में नीम के सामान्य गुण इस प्रकार बतलाये गये हैं-'नीम स्वाद में कड़वा, विपाक में चरपरा, वात-पित्त-कफ-तीनों दोषों को हरने वाला, हलका, हितकर एवं शीतल होता है।'

बुखार चढ़ने पर - ज्वर में इसकी नीम की छाल का चूर्ण एवं काढ़ा उपयोगी ओषधि माना जाता है। नीम-तेल की बूँदें भी बुखार में दी जा सकती हैं। लोलिम्बराज बताते हैं कि नीम के पत्तों को कूटकर इसे पानी में डालकर हाथ से मथने से जो झाग पैदा होता है, उसका लेप करने से प्यास, जलन एवं ज्वर शान्त होता है।

हृदय के रोग में - एक छटाँक ताजे पत्तों का रस छटाँक उबलते पानी में फाण्ट बना ले। यह अत्यन्त उपयोगी कड़वा वानस्पतिक रसायन है, जिसका हृदयपर अच्छा प्रभाव होता है।

शोथ-शोथके रोगीको नीमकी सब्जी पथ्य है। नीमको गोमूत्रमें पीसकर शोथ - रोगीके शरीरपर मलते हैं। नीमका तेल फीलपाँवमें भी प्रयुक्त होता है।

अम्लपित्त — अम्लपित्त में नीम को विशेष उपयोगी पाया गया है। पित्त एवं कफ के प्रकोप से शूल पैदा होने पर नीम का इस प्रकार प्रयोग करने से लाभ होता है- नीम के फूल, फल, पत्ती, छाल और जड़ की छाल को मिलाकर एक भाग लें और विधारा को दो भाग लेकर चूर्ण कर लें दस भाग सतुए में उसे मिलाकर शक्कर से मीठा करके रख लें।समय पड़ने पर शहद मिलाकर ठंडे पानी के साथ सेवन करें। चक्रपाणि के अनुसार नीम के पत्तों और आँवलों को घी के साथ खाने से अम्लपित्त शीघ्र ठीक हो जाता है।

आवाज सुरीली बनाना-विश्वास किया जाता है कि तानसेन ने अपने रागों में जिस समस्वरता को उत्पन्न किया था, उसका कुछ अंश अब भी उनकी कब्र पर छाये हुए नीम की पत्तियों में रमा है और उन पत्तियों को खाने से कण्ठ सुरीला हो जाता है। इसी विश्वास से गवैये इसको अब तक खाते हैं। नीम की पत्तियों का चूर्ण से आवाज सुरीली बनाने के लिये सर्वोत्तम औषध है।

बवासीर - निबौली की गिरी तीस रत्ती और नीम के जड़ की छाल साठ रत्ती की गोली बनाकर प्रतिदिन लगातार सात दिन तक बवासीर को ठीक करने के लिये दी जाती है। सुश्रुतने बवासीर को नीम के काढ़े से धोना लाभप्रद बताया है।

कुष्ठ – आचार्य शार्ङ्गधर नीम-फलों के कल्क को कुष्ठ में खिलाने का निर्देश देते हैं। वृन्दमाधव ने कुष्ठाधिकार में बहुत-से रोगों में नीम को लिया है। पञ्चनिम्ब-चूर्ण को बारह ग्राम की मात्रा में अड़तालीस ग्राम खैर-सार के काढ़े या असन के काढ़े के साथ या घीके साथ अथवा दूधके साथ लगातार एक महीने तक सेवन किया जाय तो सभी प्रकार के कुष्ठरोग नष्ट हो जाते हैं ।

सर्पदंश - जिस व्यक्ति को सर्प ने काटा हो उसे नीम के पत्ते कड़वे नहीं लगते हैं । नीम के पत्तों का प्रतिदिन सेवन करना सर्प - विष-रोधक समझा जाता है।

त्वचा के रोग - त्वचा के रोगों में पत्तियों का रस पीने को देते हैं और छाल को घिसकर लेपन करते हैं। इससे त्वचा के अधिकांश रोग नष्ट हो जाते हैं।

कृमिहर - कृमिहर के रूप में भीतरी तथा बाहरी दोनों प्रकार से नीम के विविध भागों का उपयोग किया जाता है। ताजे पत्तों का तेज काढ़ा हलका कृमिहर घोल का प्रयोग होता है।

कृमि नाश के लिये नीम का तेल का बाहरी लेप के रूप में व्यापक आँखों के रोग - नीम से आँखों पर की खोयी हुई ज्योतिक पुनः प्राप्त किया जा सकता है। कनिष्ठा अंगुली जिले मोटी तथा चार अंगुल लम्बी नीमकी दातौन को चाकू से छील लें, बकला (छाल) उतर जानेपर चाकू छील- छीलकर चिकनी सलाई कर लें। दोनों नोकांक अधिक नुकीला बना लें। एक ताजा सफेद प्याज में नीम की सलाई को प्याज में पृथक् पृथक् स्थानपर दोन ओर भोंककर प्याज - रस आँखों में लगा लें। ऐसा कई बार करें। प्याज या सलाई सूख जाने पर बदल के निश्चित रूप से नेत्र रोग नष्ट होकर नेत्र ज्योति बढ़ जाएगी 

निष्कर्ष :-

इस प्रकार नीम सर्वोपयोगी, स्वास्थ्य-रक्षक जीवन-दायक वृक्ष है। इसका आयुर्वेदिक महत्त्व बह अधिक है। नीमका औषधीय प्रयोग करके इसका भरण लाभ लेना चाहिये ।

कोई टिप्पणी नहीं

अकरकरा के औषधीय गुण

परिचय अकरकरा मूल रूप से अरब का निवासी कहा जाता है, यह भारत के कुछ हिस्सों में उत्पन्न होता है। वर्षा ऋतु की प्रथम फुहारे पड़ते ही इसके छोटे...

merrymoonmary के थीम चित्र. Blogger द्वारा संचालित.